
उत्तर प्रदेश में विकास परियोजनाएं बन तो रही थीं, लेकिन उस पत्थर पर लिखा जाएगा कौन—और कितना बड़ा?—इस पर घमासान इतना था कि लगता था मानो एमएस वर्ड में युद्ध चल रहा हो। कोई माननीय अपना नाम 48 प्वाइंट्स में चाहता था, तो कोई अफसर अपनी 12 प्वाइंट्स की इज़्ज़त भी खुद से जोड़ रहा था।
अब अफसर सिर्फ फाइलों में चमकेंगे, पत्थरों पर नहीं
नगर विकास विभाग ने स्पष्ट कर दिया है:
“किसी भी अधिकारी का नाम शिलालेख पर नहीं लिखा जाएगा, चाहे वो ‘नगर आयुक्त’ हों या ‘मैं भी थोड़ी मिट्टी में अपना नाम चाहता हूं’ टाइप अफसर।”
इससे ये तय हुआ कि अब अफसरों का नाम विकास कार्यों के पत्थर से बाहर होगा — बस काम में दिखना चाहिए, पत्थर में नहीं।
फॉन्ट से फैला था फसाद, अब आएगी बराबरी
नया आदेश कहता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और स्थानीय विधायक के बाद मेयर या चेयरमैन का नाम लिखा जाएगा।
और सुनिए — सबका फॉन्ट एक बराबर!
अब कोई भी “बड़ा नाम” साइज से बड़ा नहीं दिखेगा।
निमंत्रण पत्र भी अनिवार्य, वरना नाराज़ मेहमान और वायरल पोस्ट
शासन ने सख्त लहजे में कहा है — जनप्रतिनिधियों को निमंत्रण पत्र भेजना अनिवार्य होगा। मतलब अब “सर जी, आपने तो बुलाया ही नहीं” वाली नौटंकी नहीं चलेगी। लोकार्पण की फोटो भेजने की बाध्यता ने अब अफसरों की फोटो-शूट ड्यूटी भी जोड़ दी है।
क्यों आई ये नौबत?
दरअसल, कई निकायों ने पुराने निर्देशों को ऐसा इग्नोर किया जैसे वॉट्सऐप की पढ़ी हुई चैट। कभी विधायक का नाम पोस्टर जितना बड़ा, तो कभी कोई ईओ खुद को “शिलालेख-योग्य” समझ बैठा। अब सरकार ने मोर्चा संभालते हुए एक ही लाइन में कह दिया —
“विकास करो, नाम मत छापो!”
अंत में सवाल: क्या अगला मुद्दा ‘फोटो की हाइट’ होगा?
अब जब फॉन्ट का युद्ध थम गया है, तो अगला मुद्दा शायद ये होगा कि फोटो में कौन बीच में खड़ा रहेगा, और किसका माइक सबसे बड़ा होगा?
उत्तर प्रदेश में राजनीति सिर्फ मंच पर नहीं, पत्थरों पर भी खेली जाती है — और अब वो पत्थर भी सेंसरशिप में हैं।
अगर आप भी शिलालेख डिज़ाइन करने वाले ग्राफ़िक डिज़ाइनर हैं, तो कृपया अब “Name layer” को lock कर दें।
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